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Friday 5 July 2013

भगवान श्री परशुराम : आदर्श क्षत्रिय की खोज

पौराणिक युग में जिस चरित्र ने भारत के इतिहास पर सबसे अधिक प्रभाव डाला था, वे थे भगवान श्री परशुराम। परशुराम को पौराणिक लोग ईश्वर के दस अवतारों में से एक मानते हैं। लेकिन हम यहां उनकी चर्चा उन्हें एक सामान्य मानव और महापुरुष मानकर ही कर रहे हैं। वे भृगुवंशी ब्राह्मण थे और ऋषि जमदग्नि के पुत्र थे। उनकी माता का नाम रेणुका था। बचपन में उनका नाम ‘राम’ था। बाद में परशु नामक शस्त्र को धारण करने और उसके चालन में निपुण होने के कारण उनका नाम 'परशुराम' पड़ गया।

उस युग में ब्राह्मणों का कार्य केवल शास्त्रों का पठन-पाठन और यज्ञ करना हुआ करता था। अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा से अवश्य देते थे, लेकिन स्वयं नहीं चलाते थे, क्योंकि क्षत्रिय उनकी रक्षा करते थे और उन्हें स्वयं अस्त्र-शस्त्र चलाने की आवश्यकता नहीं हुआ करती थी। लेकिन परशुराम का युग आने तक बहुत से क्षत्रिय स्वच्छंद हो गये थे। वे मर्यादाओं का पालन नहीं करते थे और ब्राह्मणों का अपमान तक कर देते थे।

उस समय कार्तवीर्य अर्जुन, जिसे सहस्रबाहु भी कहा जाता है, का अत्याचार बहुत बढ़ गया था। अपने दम्भ में आकर एक दिन उसने परशुराम के पिता जमदग्नि की हत्या उनके ही आश्रम में कर डाली। उस समय परशुराम बाहर गये थे। जब वे लौटे तो उन्हें अर्जुन की करतूतों का पता चला। तब से उनको केवल उसी से नहीं बल्कि पूरे क्षत्रिय वर्ग से घृणा हो गयी। उन्होंने शस्त्र धारण करने का निश्चय किया और अत्याचारी क्षत्रियों के भार से पृथ्वी को मुक्त करने का संकल्प किया।

वे अपने इस संकल्प में सफल रहे। उन्होंने न केवल कार्तवीर्य अर्जुन का सपरिवार संहार किया, बल्कि उसके सहायक अन्य क्षत्रियों को भी दण्ड दिया। उनका संघर्ष अयोध्या में शासन करने वाले इक्ष्वाकुवंशी क्षत्रियों से नहीं हुआ, क्योंकि वे अत्याचार नहीं करते थे। उन्होंने ब्राह्मण युवकों को शस्त्र धारण करने की प्रेरणा दी और केवल ब्राह्मणों तथा चरित्रवान क्षत्रियों को ही अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा दिया करते थे।

एक बार जब उनको पता चला कि मिथिला के राजा जनक की पुत्री के स्वयंवर में एक क्षत्रिय ने शिवजी के प्राचीन धनुष को तोड़ डाला है, तो वे यह सोचकर क्रोधित हुए कि ऐसा कौन क्षत्रिय पैदा हो गया, तो इतना गुणवान और शक्तिशाली है। वे उसी समय मिथिला आ धमके। उस समय तक राम और सीता का विवाह हो चुका था और दशरथ अयोध्या लौट रहे थे। परशुराम ने उनको मार्ग में ही रोक लिया और उनसे धनुष तोड़ने का कारण पूछा। तब श्रीराम ने अपनी विनयशीलता और वाक्पटुता से उनको निरुत्तर किया।

भगवान परशुराम ने समझ लिया कि यह क्षत्रिय साधारण क्षत्रिय नहीं है, बल्कि अत्यन्त श्रेष्ठ, चरित्रवान् और वीर क्षत्रिय है। इसके हाथों में देश और धर्म का भविष्य सुरक्षित है। वे आदर्श क्षत्रिय की खोज में थे ही। भगवान श्रीराम के रूप में उनकी खोज पूरी हुई। प्रतीक रूप में उन्होंने श्रीराम को अपना एक अस्त्र प्रदान कर दिया। फिर सन्तुष्ट होकर वन को गमन किया।

अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा वे तब भी दिया करते थे। परशुराम को अमर माना जाता है। सम्भव है बाद में अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा देने वाले ब्राह्मण स्वयं को परशुराम कहते हों। कहा जाता है कि महाभारत के भीष्म को परशुराम ने ही धनुष चालन की शिक्षा दी थी। कर्ण ने भी स्वयं को ब्राह्मण बताकर उनसे शिक्षा प्राप्त की थी। परशुराम के बारे में अनेक कहानियां प्रचलित हैं। वे ऐसे पहले पौराणिक चरित्र थे, जो शस्त्र और शास्त्र दोनों में ही निपुण थे।

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