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Friday 5 July 2013

मुहम्मद बिन कासिम का आक्रमण

अपनी स्थापना के समय से ही इस्लाम के अनुयायियों का यह सपना रहा है कि वे अपने दीन को पूरी दुनिया में फैलायें यानी सबको इस्लाम के झंडे तले ले आयें, जिससे सभी जगह इस्लामी परिभाषा की ‘शान्ति’ हो। यह आर्यों की ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ या ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ जैसी उदात्त भावना नहीं थी, बल्कि घोर साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा थी। इस्लाम के प्रत्येक खलीफा का यह धार्मिक कर्तव्य माना जाता था कि वे संसार के अधिक से अधिक लोगों के मुसलमान बनायें। इस कर्तव्य या कहिए कि महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए खूनी संघर्ष और सामूहिक जनसंहार करने में भी उनको कोई संकोच नहीं था।

आज के सेकूलर लोग भले ही यह दावा करें कि इस्लाम का प्रसार तलवार के जोर से नहीं हुआ था, लेकिन कटु सत्य यही है कि इस्लाम केवल तलवार के बल पर ही फैला था। अरब देशों से इसकी शुरूआत हुई और शीघ्र ही इसकी आँधी ने उत्तरी अफ्रीका, पश्चिमी एशिया और यूरोप के कुछ भागों को आक्रांत कर लिया था। यूनान, मिश्र और रोम की विकसित और महान् सभ्यतायें इसने जड़ मूल से मिटा दीं। इनकी जगह घोर मतान्धता की असभ्यता फैल गयी। यहूदी और पारसी समुदाय को इसने या तो इस्लाम को अपनाने या अपने मूल वतनों को छोड़कर भागने को मजबूर कर दिया। बहुत से लोगों ने इस्लाम को मान लिया, क्योंकि अपने प्राण सबको प्यारे होते हैं, लेकिन फिर भी बहुत से लोग इधर-उधर निकलकर चले गये और हिन्दुस्तान जैसे देशों में बस गये।

इतने पर भी इस्लाम की रक्त पिपासा शान्त नहीं हुई। उनकी निगाह प्रारम्भ से ही हिन्दुस्तान की महान् सभ्यता पर गढ़ी हुई थी। यूरोप में आगे बढ़ती इस्लामी आँधी को तो स्पेन के योद्धाओं ने रोक दिया, इसलिए अब उनका पूरा ध्यान हिन्दुस्तान की ओर लगा। जब से इस्लाम अस्तित्व में आया था, लगभग तभी से इस्लाम के झंडाबरदार अपनी धर्मांध और बर्बर सेनाएँ लेकर हिन्दुस्तान से टकरा रहे थे। सिंध क्षेत्र भारत की धुर पश्चिमी सीमा पर था। इसलिए फारस (ईरान) पर कब्जा करने के बाद इस्लाम का सीधा टकराव सिंध से हुआ।

सन् 638 ई. से 711 ई. तक के 74 वर्षों के काल में नौ इस्लामी खलीफाओं ने कम से कम 15 बार सिंध पर आक्रमण किया और 14 बार पराजित होकर भाग गये। पन्द्रहवें आक्रमण का नेतृत्व कर रहा था मुहम्मद बिन कासिम, जो उस समय केवल 17 साल का था। वह दस हजार घुड़सवारों की सेना के साथ आया था। यह आक्रमण जल और थल दोनों रास्तों से किया गया था। पहले उसने देबाल के बंदरगाह पर कब्जा कर लिया, जो आजकल की कराची के निकट है। यही वह क्षण था, जिसके बारे में मुहम्मद अली जिन्ना के कथन का सन्दर्भ देकर पाकिस्तान के बच्चों को पढ़ाया जाता है कि जिस दिन पहले मुसलमान का पैर सिंध में पड़ा था, उसी दिन पाकिस्तान की नींव रख दी गयी थी।

उस समय सिंध पर राजा दाहिर सेन का शासन था। वह ब्राह्मण पिता चच और क्षत्रिय माता सोहन्दी का पुत्र था। चच से पहले सिंध पर राजपूत क्षत्रिय राजा साहसी राय का शासन था, जिसके पुरखे पिछले 600 वर्षों से सिंध पर राज कर रहे थे। साहसी राय के कोई पुत्र नहीं था, इसलिए उन्होंने अपने कश्मीरी ब्राह्मण मंत्री चच को अपना उत्तराधिकारी बना दिया। साहसी राय के बाद चच सिंध का राजा बन गया। राजा साहसी राय की रानी सोहन्दी ने दरबारियों की सलाह से उससे विवाह कर लिया। राजा दाहिर उनका ही पुत्र था।

दुर्भाग्य से चच अधिक दूरदर्शी नहीं था। अपने दम्भ में उसने सिंध के प्रमुख समुदायों लोहाणों, गुर्जरों और जाटों को अपमानित करके ऊँचे पदों से हटा दिया, जिससे ये समुदाय उसने रुष्ट हो गये। चच अधिक दिनों तक जीवित नहीं रहा। उसके बाद उसके छोटे भाई चन्दर ने शासन सँभाला। उसने एक नयी गलती यह की कि बौद्धधर्म स्वीकार कर लिया और बौद्ध को अपना राज धर्म घोषित कर दिया। परन्तु वह भी केवल सात वर्ष ही शासन कर सका।

उसके बाद सन् 679 ई. में दाहिर सेन राजा बने। वे बहुत दूरदशी थे। उन्होंने सभी समुदायों को साथ लेकर चलने का संकल्प लिया और फिर से सनातन हिन्दू धर्म अपना लिया। हालांकि उनके राज्य में बौद्धों को भी पूरी धार्मिक स्वतंत्रता थी। राजा दाहिर अपना शासन राजधानी आलोर से चलाते थे। उन्होंने देबाल बंदरगाह पर प्रशासन की दृष्टि से अपना सूबेदार नियुक्त किया हुआ था। उनके शासन काल में सिंध बहुत समृद्ध था और समुद्र के रास्ते दूर-दूर के देशों से उनका व्यापार होता था।

उन दिनों ईरान में इस्लामी खलीफा का शासन था। हजाज उसका मंत्री था। खलीफा के पूर्वजों ने सिंध को फतह करने के बहुत मंसूबे बनाये थे, परन्तु कभी सफल नहीं हुए थे। लेकिन एक अरब व्यापारी के जहाज को समुद्री लुटेरों द्वारा लूटे जाने की घटना को बहाना बनाकर खलीफा ने अपने सेनापति अब्दुल्ला के नेतृत्व में सेना को सिंध पर आक्रमण करने भेजा। इस सेना को राजकुमार जयशाह के नेतृत्व में सिंध की सेना ने बुरी तरह हराया। अब्दुल्ला को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा।

जब युद्धभूमि में हार का समाचार खलीफा तक पहुँचा, तो वह बहुत तिलमिलाया। फिर उसने एक नौजवान सैनिक मोहम्मद बिन कासिम के नेतृत्व में एक बड़ी सेना भेजी। कासिम ने सीधे युद्ध लड़ने से पहले कूटनीति से काम लिया। उस समय देबाल का सूबेदार ज्ञानबुद्ध नामक सरदार था, जो कि बौद्ध था। कासिम ने उसे सिंध की गद्दी का लालच देकर अपनी ओर फोड़ लिया। इससे देबाल में उपस्थित सेना निष्क्रिय हो गयी। लेकिन अरब सेना के देबाल पहुँचने का समाचार राजा दाहिर को मिल चुका था। उनका पुत्र जय शाह अपनी सेना के साथ तैयार होकर देबाल आ गया। लेकिन ज्ञानबुद्ध के विश्वासघात के कारण सिंध के सैनिक हार गये और देबाल पर अरबों का कब्जा हो गया।

देबाल के पतन का समाचार आलोर में राजा दाहिर को मिला, तो वे अपनी सेना लेकर युद्ध के लिए आ गये। 20 जून, सन् 712 ई. के दिन रावर नामक स्थान पर राजा दाहिर की सेना ने कासिम की सेना का मुकाबला किया। उन्होंने बहुत वीरता दिखाई, लेकिन आँख में तीर लग जाने के कारण वे हाथी से गिर गये और गिरते ही अरब सैनिकों ने तीरों और भालों से उनके शरीर को छलनी कर दिया। अपने राजा को मृत देखकर सिंधी सेना का मनोबल टूट गया और वे हार गये।

सिंध पर कासिम का कब्जा हो गया। इसके फौरन बाद उसने अपना असली चरित्र दिखा दिया। जिन बौद्धों ने उसकी सहायता की थी, उनको ही उसने गाजर-मूली की तरह काट डाला। उसने तक्षशिला विश्वविद्यालय को पूरी तरह नष्ट कर दिया। हजारों पुरुषों, बच्चों और वृद्धों को या तो बलात् मुसलमान बना लिया गया या कत्ल कर दिया गया। महिलाओं का शीलभंग किया गया और बहुत सी कन्याओं को गुलाम बनाकर ईराक में खलीफा के पास भेज दिया गया। तभी से सिंध हमेशा के लिए मुस्लिम शासकों का गुलाम हो गया। हालांकि कासिम भी अधिक समय सिंध में नहीं रह सका। किसी बात पर नाराज होकर नये खलीफा ने उसे वापस बुला लिया और जेल में डाल दिया, जहाँ यातनाओं से उसका प्राणान्त हो गया।

अरबों का राज्य केवल सिंध के कुछ भाग और पंजाब के दक्षिणी भाग तक ही सीमित रहा। वह सारा क्षेत्र आजकल पाकिस्तान में शामिल है। लेकिन अरबों का राज्य सिंध के पूर्व में बिल्कुल नहीं बढ़ सका, क्योंकि गुजरात के बप्पा रावल ने उनको ऐसी करारी हार दी कि लगभग 500 वर्षों तक मुसलमान शासकों की हिम्मत भारत की ओर आँख उठाकर देखने की भी नहीं हुई। इसकी कहानी अगली बार।

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