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Tuesday 30 July 2013

दहेज की परम्परा और विकृति


हमारी भारतीय संस्कृति में अनेक श्रेष्ठ परम्परायें हैं, लेकिन उनमें से बहुतों का स्वरूप विकृत हो गया है, जिससे उनकी श्रेष्ठता समाप्त होकर निकृष्टता की श्रेणी में पहुँच गयी है। दहेज की परम्परा उनमें से एक है। आज मैं इस परम्परा की विस्तार से चर्चा करना चाहता हूँ।

अभी कुछ समय पहले ही सरकार ने यह कानून बनाया है कि बेटी का भी अपने पिता की पैतृक सम्पत्ति में उतना ही अधिकार होगा, जितना बेटों का होता है। यह कानून अपनी जगह सही है, हालांकि इसके कारण सगे भाई-बहिनों के बीच मुकदमे लड़े जाने लगे हैं। लेकिन प्राचीन भारतीय परम्परा में इसका पालन बिना किसी कानून के ही होता रहा है। दहेज उसी के पालन का एक रूप था। जब कोई पिता अपनी पुत्री का विवाह करता था, तो वह अपनी सम्पत्ति का एक भाग अपनी पुत्री को दहेज के रूप में देता था। हालांकि इसकी माँग वरपक्ष की ओर से कदापि नहीं की जाती थी, फिर भी पिता अपनी पुत्री को दहेज देना अपना कर्तव्य मानता था, ताकि पुत्री को यह अनुभव न हो कि पिता ने उसे अपनी सम्पत्ति का कोई भाग नहीं दिया।

प्राचीन कहानियों में ऐसे उल्लेख आते हैं कि किसी राजा ने अपने दामाद को अपने राज्य का आधा भाग दे दिया। यह भी अपनी पुत्री को सम्पत्ति में भाग देने का एक तरीका था। भगवान श्री राम के विवाह में सीता जी के पिता राजा जनक ने दहेज में प्रचुर सामग्री प्रदान की थी, जिनमें नौकर-चाकर, हाथी-घोड़े और आभूषण भी शामिल थे। क्या कोई कह सकता है कि अयोध्या में इन वस्तुओं की कोई कमी थी या कि राजा दशरथ ने जनक जी से इनकी माँग की थी? बिल्कुल नहीं। दहेज देकर राजा जनक अपने कर्तव्य का ही पालन कर रहे थे।

जैसा कि प्रायः हम परम्परा के साथ होता है, आगे चलकर इस परम्परा ने भी विकृत रूप ले लिया, क्योंकि वरपक्ष द्वारा दहेज की माँग की जाने लगी। यदि वधूपक्ष की आर्थिक स्थिति अच्छी है, तो वह स्वयं ही अपनी क्षमता के अनुसार अधिक से अधिक दहेज देता है, लेकिन यदि वधूपक्ष गरीब है और वरपक्ष द्वारा बढ़ा-चढ़ाकर माँग की जाती है, तो वह बहुत अनुचित बात हो जाती है। दुर्भाग्य से हिन्दुओं में वरपक्ष द्वारा दहेज के लिए सौदेबाजी भी की जाती है, जो अधिक दुर्भाग्यपूर्ण है। यह अरब देशों और मुस्लिम समाज की उस परम्परा के ठीक विपरीत है, जिसमें कन्यापक्ष द्वारा वरपक्ष से धन की माँग की जाती है, जिस कारण बहुत से गरीब लड़के कुँवारे रह जाते हैं तथा यौन अपराधों की ओर मुड़ जाते हैं। इस सौदेबाजी में वर और कन्या के गुण महत्वहीन हो जाते हैं, केवल उनकी आर्थिक क्षमता ही महत्वपूर्ण हो जाती है।

यही दहेज का विकृत रूप है, जिसका कुपरिणाम वधुओं को मानसिक रूप से सताने, शारीरिक पीड़ा पहुँचाने और जलाकर मार डालने तक के रूप में सामने आता है। हालांकि अब दहेज हत्या के खिलाफ कठोर कानून बन गया है, लेकिन यह देखने में आया है कि इस कानून का सदुपयोग कम और दुरुपयोग अधिक किया जा रहा है, क्योंकि इसमें वरपक्ष को अपनी सफाई का मौका दिये बिना सीधे ही दोषी ठहरा दिया जाता है।

हमारी परम्परा में स्त्रीधन अर्थात् दहेज को निकृष्ट कहा गया है। इसका अर्थ है कि वरपक्ष द्वारा अपने स्वार्थों के लिए उसका उपयोग नहीं करना चाहिए। उसका उपयोग केवल वधू की सुख-सुविधा के लिए अथवा संकट के समय ही करना चाहिए। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम दहेज की इस परम्परा की विकृतियों को दूर करके इसे प्राचीन काल की श्रेष्ठ परम्परा का रूप दें। किसी भी रूप में दहेज की माँग करना अनुचित है। इसके बजाय हमें वर और कन्या के गुणों को देखना चाहिए।

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