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Saturday 6 April 2013

अपराध और दंड


मेरे मित्र भाई वनवारी ‘अकेला’ ने अपराधियों को सजा देने के बारे में पिछले दिनों दो लेख लिखे हैं। मैं उनके दोनों लेखों से लगभग पूरी तरह असहमत हूँ। इन लेखों की कमियों की ओर ध्यान दिलाकर अपने विचार प्रकट करने के लिए यह लेख लिखा जा रहा है।

1. यह कहना गलत है कि सजा से अपराधों में कमी नहीं आती। वास्तव में सजा देने का मुख्य उद्देश्य अपराधों में कमी करना नहीं, बल्कि अपराधियों को यह भय दिखाना है कि यदि वे अपराध करेंगे, तो उनको दंड अवश्य मिलेगा। इस डर के कारण अपराधी अपराध करने से पहले कई बार सोचने को मजबूर होता है। अगर यह भय न हो, तो वह खुलकर अपराध करेगा। इसलिए दंड के कारण अपराधों में एक प्रकार से कमी ही होती है।

2. यह कहना भी गलत है कि सजा अपराधियों के लिए चुनौती का काम करती है। ऐसे एक-दो मानसिक रूप से अधिक बीमार अपराधी हो सकते हैं, लेकिन सामान्य अपराधी तो सजा से डरते हैं। दंड व्यवस्था जितनी कठोर होगी, समाज में अपराधों की संख्या उतनी ही कम होगी।

3. यह ठीक है कि अपराधी की मानसिकता रुग्ण होती है और उसका इलाज होना चाहिए। लेकिन यह इलाज क्षमा करना नहीं हो सकता। उसके बंदी बनाकर जेल में डालना भी एक प्रकार का इलाज ही है। यदि कोई अपराधी मानसिक रूप से अधिक बीमार है, तो उसके मानसिक चिकित्सालय में बन्द करके रखा जाता है और इलाज भी किया जाता है। किसी भी हालत में अपराधी को खुला छोड़ना उचित नहीं है।

4. यह कहना गलत है कि जेल से छोटे अपराधी बड़े अपराधी बनकर निकलते हैं। ऐसे मामले बहुत कम होते हैं। ज्यादातर तो भविष्य में अपराध करने से बचते हैं। जो बड़े अपराधी बनकर निकलते हैं, तो यह जेल व्यवस्था की कमी है, न्याय व्यवस्था की नहीं। जेल में सजा प्राप्त अपराधियों को सुधारने के लिए उचित प्रशिक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए। उनको बड़े अपराधियों से दूर रखा जाना चाहिए। कैदियों के अच्छे चाल-चलन के आधार पर सजा को कम भी किया जाता है। उनको किसी व्यवसाय का प्रशिक्षण भी देना चाहिए, ताकि बाहर आकर वे सम्मानपूर्वक अपनी आजीविका कमा सकें।

5. यह कहना बिल्कुल गलत है कि सजा के रूप में समाज अपराधी से बदला लेता है। वास्तव में यह समाज का दायित्व है कि वह अपराधी को उचित दंड दे। यह दायित्व न्यायपालिका के माध्यम से निभाया जाता है। कोई भी व्यक्ति स्वयं किसी अपराधी को दंड नहीं देता। कानून हाथ में लेना भी अपराध है।

6. किसी अपराधी को क्षमा करने के पूर्व बहुत सी बातों का विचार किया जाता है। हर अपराधी क्षमा योग्य नहीं होता। जब तक यह विश्वास न हो कि वह आगे कोई अपराध नहीं करेगा, तब तक क्षमा नहीं देनी चाहिए। अगर अपराधियों को उदारता से क्षमा किया जाएगा, तो अपराधों की संख्या बहुत बढ़ जाएगी। दंडनीय अपराधी को दंड न देना या क्षमा कर देना भी अपराध है। जैन समाज में जो क्षमा पर्व होता है, वह अनजाने में की गई गलतियों के लिए होता है, जानबूझकर किये गये अपराधों के लिए नहीं।

7. न्यायपालिका, जेल आदि को समाप्त करके मनोचिकित्सालय बनाने का सुझाव स्पष्ट रूप से गलत है। सबकी अपनी-अपनी भूमिका होती है। समाज की व्यवस्था के लिए सभी आवश्यक हैं। यदि न्यायपालिका अपराधी को उचित दंड नहीं देती, तो वह अपने कर्तव्य से हट जाती है। तुलसीदास जी ने भी रामचरित मानस में लिखा है-
          जो नहिं दंड करौं खल तोरा।
          भ्रष्ट होइ श्रुति मारग मोरा।।

इसलिए भाई साहब वनवारी जी, न्याय व्यवस्था में अपना विश्वास बनाये रखिये। आपने जो लिखा है, उसका स्रोत क्या है? अगर ये आपके अपने विचार हैं, तो कहना पड़ेगा कि आप सत्य मार्ग से बहुत दूर चले गये हैं।

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