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Friday 14 June 2013

भगवान श्रीकृष्ण के जीवन का एक पृष्ठ


भगवान श्रीकृष्ण ने अपने जीवन में अनेक महान् कार्य किये थे। लेकिन हमें उनकी जानकारी नहीं दी जाती, बल्कि उनके बारे में बहुत से फालतू और काल्पनिक किस्से फैलाये जाते हैं। यहाँ मैं उनके जीवन के बारे में एक अल्पज्ञात घटना का उल्लेख कर रहा हूँ।

कंस के वध के बाद भगवान् कृष्ण ने अपने वास्तविक माता-पिता देवकी और वसुदेव को कंस के कारागार से छुड़ाया था। उस समय तक कृष्ण और बलराम दोनों भाइयों की कोई औपचारिक शिक्षा नहीं हुई थी, हालांकि दोनों भाई मल्लयुद्ध में प्रवीण थे। जब वसुदेव को पता चला कि अभी तक उनकी शिक्षा नहीं हुई है, तो शिक्षा के लिए दोनों भाइयों को आजकल की उज्जैन नगरी के पास अवंतिका में ऋषि संदीपन (या संदीपनि)  के आश्रम में भेजा गया। वहाँ उन्होंने गुरु की सेवा करते हुए और सभी नियमों का पालन करते हुए पूरे मनोयोग से शिक्षा प्राप्त की और केवल तीन वर्ष में ही सभी प्रचलित शास्त्रों में निपुण हो गये। इतना ही नहीं उन्होंने धनुर्युद्ध और गदायुद्ध में भी प्रवीणता प्राप्त कर ली।

जब उनकी शिक्षा पूरी हो गयी और उनके जाने का समय आया, तो तत्कालीन परम्परा के अनुसार भगवान कृष्ण ने अपने गुरु को गुरुदक्षिणा देने की इच्छा प्रकट की। गुरुजी ने कहा कि मेरे पास सब कुछ है, इसलिए मुझे कोई सांसारिक वस्तु नहीं चाहिए। यदि तुम गुरुदक्षिणा देना ही चाहते हो, तो मेरे पुत्र को वापस ला दो, जिसे कोई विदेशी शक्ति अपहरण करके ले गयी है। तुम इस कार्य को करने में समर्थ हो। भगवान कृष्ण ने उनको वचन दिया कि मैं अवश्य आपके पुत्र को वापस लाऊँगा, चाहे मुझे अपने प्राण ही क्यों न गँवाने पड़ें।

उस समय गोवा या सौराष्ट्र के तट से कुछ दूर एक द्वीप में एक रानी का शासन था। वहाँ मातृ-सत्तात्मक प्रणाली थी अर्थात् पुरुषों को उनकी पत्नियों का दास बनाकर रखा जाता था। सारा कार्य महिलायें ही करती थीं। उस रानी के महिला सैनिक कभी-कभी भारत की मुख्य भूमि पर आ जाते थे और उनको जो पुरुष पसन्द आता था, उसका अपहरण कर ले जाते थे। ऐसे ही किसी दिन वे ऋषि संदीपन के युवा पुत्र पुनर्दत्त को उठा ले गये। द्वीप में जाने पर रानी ने उसका द्वन्द्व युद्ध अपने पति से करा दिया और इस युद्ध में उस पति के मर जाने पर  पुनर्दत्त को अपना नया पति बना लिया।

उसको छुड़ाने के लिए कृष्ण अपने 5-6 साथियों के साथ एक नाव में सवार होकर उस द्वीप पर पहुँच गये। साथियों को उन्होंने नाव में ही छोड़ दिया और अकेले ही उस रानी के दरबार में गये। रानी उनको देखते ही मोहित हो गयी और उसने कृष्ण से कहा कि तुम मेरे पति से द्वन्द्व युद्ध करो। अगर तुम जीत गये तो मैं तुम्हें अपना पति बना लूँगी, फिर तुम खूब आनन्द से रहना। कृष्ण ने संदीपन के पुत्र को देखते ही पहचान लिया, क्योंकि उसका हुलिया उनको बताया जा चुका था। वे उसके साथ तलवार से द्वन्द्व युद्ध करने लगे।

युद्ध के बीच में ही उन्होंने धीमी आवाज में पुनर्दत्त को समझा दिया कि मैं तुम्हें छुड़ाने आया हूँ। फिर उससे कहा कि लड़ने का अभिनय करते हुए समुद्र तट की ओर चलो। इस प्रकार दोनों लड़ते-लड़ते समुद्र के किनारे आ गये। रानी के सैनिक उनकी चाल नहीं समझ पाये। फिर कृष्ण ने तट के बिल्कुल पास आकर इशारा किया, तो दोनों दौड़कर अपनी नौका में चढ़ गये। नौका में उनके साथी पहले से तैयार थे, वे तेजी से नौका दौड़ा ले गये। जब रानी के सैनिकों की समझ में यह चाल आयी, तो वे उनको पकड़ने दौड़े, लेकिन नौका पर सवार लोगों ने तीरों की बौछार छोड़कर उनको पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया। इस तरह वे गुरु पुत्र को सुरक्षित लौटाकर ले आये।

आश्रम में आकर जब उन्होंने पुनर्दत्त को उसके माता-पिता को सौंपा तो वे बहुत प्रसन्न हुए। कृतज्ञता भाव से गुरु की पत्नी ने कृष्ण से कहा कि तुम कोई वरदान माँग लो। मैं अपने समस्त पुण्यों को देकर भी वह वरदान पूरा करूँगी। कृष्ण कोई वरदान चाहते नहीं थे, लेकिन गुरुमाँ के आग्रह पर उन्होंने वरदान माँगा- ‘मातृ हस्ते भोजनम्’ अर्थात् मैं आजीवन माता के हाथ का भोजन करता रहूँ। गुरुमाँ ने तत्काल ‘तथास्तु’ कह दिया।

उनका यह वरदान फलीभूत हुआ। भगवान कृष्ण ने बड़ी लम्बी आयु पायी थी। महाभारत के युद्ध के समय कहा जाता है कि वे 75 वर्ष के थे। उसके बाद भी 25-30 वर्ष तक वे जीवित रहे। उनकी माता देवकी उनसे भी 25 वर्ष बड़ी थीं। लेकिन इस वरदान के प्रभाव से कृष्ण के देहावसान के बाद ही देवकी का देहान्त हुआ था।

गुरु-पुत्र को वापस लाने की इस कहानी को पुराणकारों द्वारा कई रूपों में प्रचारित किया गया है, परन्तु वे कहानियाँ विश्वसनीय नहीं हैं।

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